कमबख्त ये अकेलापन! उसे खुद पर झूंझ आ रही थी, बेशक ये रास्ता उसने खुद चुना था, पर उसे क्या पता था कि :
"जो आँखों ओंट हो चेहरा, उसी को देख कर जीना
ये समझा था कि है आसां, मगर आसां नहीं होता."
बेशक माँ बाबूजी ने उसे यह विकल्प दिया था, पर शायद ज़िन्दगी ने नहीं. हवा के एक झोंके ने उसे फिर अतीत से वर्तमान में ला पटका था. रात के अकेले होने का डर, पराया शहर, ज़िंदगी की थकन! कभी कभी लगता था, बसंत की यादें उसे अकेला, मनहूस और पागल कर देंगी........!!!उसने एक गहरी सांस छोड़ी, उठ कर खिड़की के पल्ले पर किल्ली का सहारा दिया और चाय बनाने चली गयी, "अब भूल जाओ मुझे, हो सके तो माफ़ कर देना..." यही तो लफ्ज़ थे बसंत के, जब वह आख़िरी दफा उसे रेलवे-स्टेशन पर छोड़ने आई थी. उसकी निगाहों में वो एक दिन जैसे फिर से ज़िंदा हो आया. अपनी हंसी के लिए सबसे ज़्यादा बदनाम प्राध्यापक अचानक से ही रोने लगी थी, पहले आंसू फिर सिसकी, और इस अकेलेपन में उसकी आवाज़ उसके कान आसानी से सुन रहे थे," ओ रब्बा!!! औरत होना क्या इतना जुर्म है " उसने खुद से ही ऊँची आवाज़ में पूछ लिया था.शुक्र है , उसके इस खाली घोंसले में उसे रोने की आज़ादी थी, वरना जी भी कैसे पाती वो! .(बाकी आइन्दा)
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are!!! yeh to woh hee baat huee ki pakwaan ka ek tukda khila ke bhookh jaga dee aur kaha ki baki baad men. pls jaldee ise poora karen, yeh behad prabhavi shuruaat hai
ReplyDelete"जो आँखों ओंट हो चेहरा, उसी को देख कर जीना
ReplyDeleteये समझा था कि है आसां, मगर आसां नहीं होता."
शुभकामनाएं
great
ReplyDeleteहिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
ReplyDeleteकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
इस नए ब्लॉग के साथ आपका हिंदी चिट्ठाजगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteare waah............!!
ReplyDeleteअच्छा लिखा है आपने। विषय का विवेचन और भाषिक संवेदना प्रभावित करती है।
ReplyDeleteमेरे ब्लाग पर राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने के संदर्भ में अपील है। उसे पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया देकर बताएं कि राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने की दिशा में और क्या प्रयास किए जाएं।
मेरा ब्लाग है-
http://www.ashokvichar.blogspot.com