Monday, July 19, 2010
आगे
हाँ ये वही कैसेट था जो सबसे पहले गिरा था, "साउंड-शोपी" से बाहर आते वक्त, और उसे देने के लिए झुकी थी मोनिका! "ज जी शुक्रिया!" जवाब में मुस्कुरा भर दी थी मोनिका. उसकी मुस्कराहट का जादू नहीं, उम्र के उस दौर का जादू था, जहां अमूमन सभी लडकियां अच्छी लगती हैं, शायद कुछ ज़्यादा अच्छी. मोनिका पहली ही केटेगिरी की थी, पर उसकी मुस्कराहट में बला की कशिश थी. "शेखर बसंत राव!, मेरा नाम है", खुद-ब-खुद शेखर के मुहं से निकला था, वह फिर मुस्कुरा दी, रस्मी मुस्कराहट के साथ, कैसेट पलट कर देखी और जैसे उसकी आँखों में चमक सी आ गई "नुसरत फतह अली खान! " उसके मुह से हैरत से निकला. अब मुस्कुराने की बारी अगले की थी, "क्यों क्या आपकी और हमारी कुण्डली का यह गृह मिलता है? " वह झिझकी, "बसंत आपके पिता जी का नाम है, " झिझक मिटाने के लिए ही तो पूछा था उसने. "अरे!! नहीं जी, माँ ने बसंत नाम दिया था, और पिताजी ने शेखर, मैंने दोनों के मन को खुश कर दिया; वैसे बन्दा इसी ही नाम से नग्मानिगारी करता है". माय गोड! अगर वक्त पर नेहा आकर आवाज़ न देती तो लगता था कि ये आज की पूरी शाम ही चट कर जाता, "आपको जाना है, कैसेट पसंद हो तो सुनने के लिए ले लें." वह पूछने से ज़्यादा, मोहब्ब्त से आदेश देने का आदी था, मोनिका बेचारी! उसने कैसेट रख ली; "सुनिए! अपना पता तो देती जाइए, वापस कहाँ आकर लूंगा?" जवाब में उसने तुरत-फुरत पिताजी का नंबर दे बाहर की राह ली. (बाकी आइन्दा........)
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment