Monday, August 2, 2010
धीरे धीरे रात गहरा रही थी. वह चाहती थी, शेखर बसंत राव इसी रात के घेरे में कही हमेशा हमेशा के लिए गुम हो जाए, कभी न आए कभी भी न. पर नींदों का क्या करे जो शेखर की यादों के बगैर आँखों के पालों तक भी नहीं फटकती थी."मेरी तो नींदें भी चली गयी हैं शेखर ", एक सूखी सी हंसी और बस एक आह! इतना भर निकला उसके मुह से. उसने करवट बदली, पता नहीं कब आँख लगी, और तड़के, भोर की पहली किरण के साथ, चिड़ियों सी चहकती वह बिलकुल ताज़ा थी. न तो किसी को पता था कि कोई किसी के लिए रात भर तड़पा था, और न ही किसी को इस बात का कोई फर्क पड़ना था, कि कोई किसी के लिए कितनी रातों से जाग रहा है. अब कँहा कोई है जो कहे, "गुड वाली नाईट" या "उठ गई जान"
पूजा के बाद उसने, गीले बालों को सूखने, खुला छोड़ दिया, और साड़ी की भांजे सुधारती, जाने की तैयारियों में मशगूल हो गयी. अब वह रात की तरह कमज़ोर लडकी नहीं, बल्कि सुबह की शेरनी जो थी.
ज़िन्दगी को बस एक बार ही कोई घायल कर गया था, शुक्र है उसका आप तो बचा था,..............(बाकी आइनदा .......)
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bahut khoob...
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