हैरत है उसे इस रुलाई के बाद कितना सुकून मिलता है, जैसे सबकुछ धुल गया हो, साफ़-शफ्फाफ हो गया हो, और जीने के जैसे नए सामान उसके लिए सुलभ हो गए हों. खिड़की से नज़र आते ट्यूलिप के फूल अँधेरे में धुंधला रहे थे, और चाय की चुस्कियां भरता उसका ज़हन धीरे-धीरे, अतीत उजला रहा था, लाख कोशिशों के बावजूद उसकी आंखे फिर भीग गई, "क्या भूले? क्या क्या भूले? शेखर! ज़िन्दगी वैसे ही कोई कम तकलीफदेह थी, जो इसमें तुम आकर वापस चले गए?" उसके आंसू, उसी से सवाल करने लगे थे, और ऐसे सवाल जिनके जवाब होते ही नहीं हैं. जिस्म, जान रूह सब ही तो अनाथ हो गया था उसका. सच ही तो है, बिट्टो बुआ ठीक कहती थी, "रानी! औरत तो मर्द का एक लम्हा होती है, पर याद राखिओ! मर्द अनजाने ही औरत का पूरे का पूरा वक्त हो जाता है." उसने निश्वास सी छोड़ी और उठ कर घड़ी देखी, आठ बजी है, शेखर शायद प्रेस में होगा, केन्टीन में लंच कर रहा होगा या फिर अपनी सरकारी नौकरी के एवज पाई खूबसूरत बीबी के साथ बैठा सास बहू का कोई सीरियल देख रहा होगा. उसने सर झटक कर इन सोंचो से दूर जाना चाहा, पर मन का क्या करे, उसे आदत थी, ८ बजते ही शेखर की आवाज़ सुनने की; कहाँ होगा? ठीक भी होगा कि नहीं? इन तीन सालों में कितनी बार दिल चाहा उसका, चीख-चीख कर कहे, " मत बनाओ मुझे अपना आदी; मेरी ज़िन्दगी के सारे रंग सिर्फ तुम्हारी वजह से हैं, प्लीज़ शेखर! मत किया करो यूँ मुझे फोन, जब तुम नहीं होगे, चीख- चीख मरूंगी मै!"
पर होता अक्सर यही है, लम्हे खता करतें हैं और सदियाँ सजावार हो जाती हैं. अगले ही पल शेखर का फोन आता और बगैर सड़क, दूकान, घर, ऑफिस और मकान की परवाह किए, वह उसकी हर ज़हनी ज़रुरत पूरी करने में अपना आप भुला जाती. उसे गुस्सा आने लगा था, मालूम नहीं खुद की ज़हानत पर या रब के क़ानून पर जिसने औरत में एक माँ, एक प्रेमिका, बीवी, बेटी बहन और पड़ोसन सभी कुछ शामिल कर दिया था. इसी क़ानून के तहत शेखर ने इससे इन सारे रूपों की मोहब्ब्त वसूली थी पर ये क्या! कि खुद को बड़ा बेरहम साहूकार साबित करके गया था शेखर. खामुशी से पल्ला छुडाने के लिए, उसने रेडियो चालू किया, "शहर के दुकादारों, कारोबारे-उल्फत में
सूद क्या, ज़ियाँ क्या है तुम न जान पाओगे......." सुना और खुद पर मुस्कुरा कर रह गई वह!
कहाँ कहाँ से पल्ला छुडाऊ शेखर! ये वही कैसेट थी जो तुमने मुझे ...............(बाकी aaindaa)